इस्लाम का इतिहास - भाग 3
पुराने अरब में मक्का और उसके आसपास मूर्ति पूजा की इतनी अधिक मान्यता थी कि हर घर के दरवाज़े पर अपने आराध्य देवता की एक मूर्ति आवश्य होती थी.. यदि घर का कोई सदस्य कहीं दूर सफ़र के लिए निकलता था तो घर के दरवाज़े पर स्थित देवता की मूर्ति को हाथों से "ठोकता" था और फिर बाहर जाता था.. यही काम वो सफ़र से वापस आके भी करता था.. ये एक तरह की सुरक्षा के लिए किया गया कर्मकाण्ड होता था
काबा में स्थित "हबल" देवता की मूर्ति जो देखने में इंसान के जैसी थी, का एक हाथ टूटा हुवा था जिसको एक दूसरा सुनहरा हाथ लगा कर जोड़ा गया था.. हबल के सामने कई तरह के कर्मकाण्ड होते थे जिनमे से "तीर उछालना" प्रमुख था.. इस कर्मकाण्ड में मुख्यतः सात या तीन तीरों का इस्तेमाल होता था और निशान लगे हुवे अभिमंत्रित तीर को देवता के सामने गिरने के अनुसार भाग्य का फैसला किया जाता था.. इस्लाम में भी तीन और सात अंकों की महत्ता मूर्ति पूजा ख़त्म होने के बाद भी कायम रही.. याद रहे कि ये सारे कर्मकाण्ड "काबा" के भीतर होते थे बाहर नहीं
उस समय जब तीर्थ यात्री मक्का आते थे तो अपने साथ अपने "स्थानीय" देवी देवताओं की मूर्तियां भी साथ लाते थे और अब्दुल मुत्तलिब (मुहम्मद s.a.w के दादा) और इनके घराने का ये फ़र्ज़ होता था कि वो उनके देवता को आदर दें और उन्हें वही मान दें जो मक्का के अन्य देवताओं को देते हैं
उस समय मक्का में तीर्थ यात्रा के लिए सबका स्वागत था.. अन्य पंथ और सम्प्रदायों के लोग भी "काबा" को उतनी ही इज़्ज़त देते थे.. ईसाई भी अपने "अब्राहम" के ख़ुदा के घर पर अक्सर आते थे और उनका भी वहां उसी तरह स्वागत होता था जैसे अन्य लोगों का.. एक ईसाई को इतना अधिकार मिला हुवा था की उसने काबा के भीतर की दीवारों पर चटख रंगों से माँ मरियम और हज़रत ईसा का चित्र बनाया और उस चित्र को भी उतनी ही इज़्ज़त दी गयी जितना अन्य देवी देवताओं को दी गयी थी
क़ुरैश घराना इतना सहनशील था कि उसने लगभग हर किसी को अपने हिसाब से और अपनी श्रद्धा से "काबा" के पूजा की इजाज़त दे रखी थी और कहते हैं यही सहनशीलता पैग़म्बर मुहम्मद को आने वाले समय में यश और कीर्ति दे सकी और लोगों ने उनके दादा और पुरखों द्वारा दिए गए आदर को गले से लगाया था और जब पैग़म्बर मुहम्मद बिलकुल नयी विचारधारा के साथ आये तो ज़्यादातर लोगों ने देर सबेर उस विचारधारा को भी गले लगा लिया
क्रमशः .....
~ताबिश