इस्लाम का इतिहास - भाग 4

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History of Islam


इस्लाम का इतिहास - भाग 4


अब्दुल मुत्तलिब (मुहम्मद s.a.w के दादा) के समय में और उसे पहले भी अरब में कुछ लोग होते थे जो हज़रत इब्राहीम के ही एक "अल्लाह" पर विशवास करते थे.. इन लोगों के समुदाय को "हुनफा" कहा जाता था जो "हनीफ" शब्द का बहुवचन था.. "हुनफा" लोग एक अल्लाह में विशवास रखते थे और मूर्तिपूजा के विरोधी थे.. कई हनीफ अब्दुल मुत्तलिब के बहुत अच्छे दोस्त थे जिनमे से एक का नाम था "वरक़ह" जो की अब्दुल मुत्तलिब के चचेरे भाई के लड़के थे.. "वरक़ह" ईसाई बन चुके थे जो की उस समय इब्राहीम के दीन के समकक्ष ही था.. बाकी जगह मूर्ति पूजा अधिक थी

"वरक़ह" और बहुत दुसरे ईसाई नए "पैग़म्बर" के आने का इंतज़ार कर रहे थे क्योंकि उनके हिसाब से उस समय ज़्यादातर भविष्यवाणी सही साबित हो रही थी जो कि नए पैग़म्बर के आमद की राह बता रही थी.. यहूदी तो वैसे ही तैयार बैठे थे और रबाई लोग ये घोषणा कर रहे थे गाहे बगाहे कि नए पैग़म्बर के आने का समय हो गया है और वो यहूदियों में ही पैदा होगा क्योंकि यहूदी ख़ुद को ख़ुदा द्वारा चुनी हुई प्रजाति समझते थे..

जबकि वरक़ह और अन्य अरब ये उम्मीद बांधे थे कि इस बार पैग़म्बर कोई अरब ही होगा क्योंकि अगर किसी को सब से ज़्यादा पैग़म्बर की ज़रूरत थी तो वो अरब थे.. यहूदी और ईसाईयों के पास तो पहले से पैग़म्बर और किताबें थी मगर अरबों को ही अल्लाह ने अभी तक बिना पैग़म्बर और आसमानी किताब के छोड़ रखा था.. अरब अभी भी इब्राहीम के ही बताये दीन पर चल रहे थे जिसमे एक अल्लाह था.. वो बात अलग थी कि अब मूर्ति पूजा उसमे जुड़ चुकी थी मगर अरब फिर भी ख़ुद को ख़ुदा के मानने वालों में सबसे नज़दीक समझते थे और इसलिए पैग़म्बर उनके ही लोगों में से होगा, इस दावेदारी पर वो अधिक विशवास करते थे

वरक़ह की एक बहन थी "कुतैलह".. वरक़ह उस से पैग़म्बर के आने की आमद पर बातें किया करते थे और "कुतैलह" का विशवास इन बातों पर बहुत अडिग था.. कुतैलह आध्यात्मिक औरत थी और उसमे भविष्य को देखने की विलक्षण प्रतिभा थी

बलि की प्रथा से बचने के बाद अब्दुल मुत्तलिब ने अपने बेटे "अब्दुल्लाह" की शादी का सोचा और उसके लिए उन्होंने "वुहैब" की बहन "आमिना" को चुना.. वुहैब की एक बेटी भी थी जो लगभग शादी के लिए तैयार थी.. अब्दुल मुत्तलिब ने अपने बेटे के साथ आमिना की शादी के लिए ये शर्त रखी कि बदले में वुहैब अपनी बेटी का निकाह अब्दुल मुत्तलिब से करेंगे.. वुहैब इसके लिए राज़ी हो गए और ये तय हुवा कि एक ही दिन अब्दुल मुत्तलिब और उनके बेटे अब्दुल्लाह की शादी होगी.. अब्दुल मुत्तलिब की "हलाह" से और अब्दुल्लाह की "आमिना" से

ये सन 569 AD की बात है.. शादी के दिन दोनों बाप बेटे तैयार हुवे.. अब्दुल्लाह उस समय पचीस साल के थे और अब्दुल मुत्तलिब सत्तर के.. मगर अब्दुल मुत्तलिब इतने जवान दिखते थे कि इस उम्र में भी पूरे इलाके की औरतें उन पर जान देती थीं.. अब्दुल्ला भी अपने बाप पर ही गए थे और सुंदरता के लिए इतिहास में उनकी तुलना ग्रीस के देवताओं से की जाती थी.. सत्तर साल के अब्दुल मुत्तलिब अपने पचीस साल के बेटे के साथ एक ही दिन अपनी दुल्हन भी ला रहे थे और इस से ये पता चलता है कि कम उम्र की लड़कियों के साथ शादी करना एक आम चलन था और समाज उसे इज़्ज़त की नज़र से ही देखता था.. बहू की उम्र ज़्यादा थी और बीवी की कम मगर ये एक आम रिवाज था..

शादी के दिन अब्दुल मुत्तलिब अपने बेटे के साथ दूल्हा बनकर उसका हाथ पकड़कर चल रहे थे.. अदुल्लाह उस समय इतने ज़्यादा आकर्षक दिख रहे थे कि उन्हें देख "वरक़ह" की बहन "कुतैलह" अपने आपको रोक न सकी और बीच रास्ते में उन्हें रोकर अब्दुल्लाह से बोली कि "मुझे अपनी बीवी बना लो".. जिसके जवाब में अब्दुल्लाह ने कहा कि "वो अपने बाप के साथ हैं और उनकी बात नहीं टाल सकते हैं"

शादी के कुछ दिनों बाद अब्दुल्लाह की मुलाक़ात "कुतैलह" से फिर रास्ते में होती है.. उस दिन "कुतैलह" अब्दुल्लाह की तरफ देखती भी नहीं है और न बात करती है.. कुछ देर इंतज़ार करने के बाद आखिर अब्दुल्लाह उस से खुद पूछते हैं कि "जो तुम शादी के दिन मुझ से कह रही थी आज नहीं कहोगी"

कुतैलह मुस्कुरा के जवाब देती है "उस दिन जो प्रकाश तुम्हारे साथ था वो आज नहीं है.. वो प्रकाश अब तुम्हारे पास से जा चुका है और मुझे उसी प्रकाश की ज़रूरत थी"

उस समय तक "मुहम्मद" अपनी माँ आमिना की कोख में आ चुके थे जिसे "कुतैलह" समझ चुकी थी..


क्रमशः ....


~ताबिश




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