फरहान अख्तर की लखनऊ सेंट्रल में अगर असल लखनऊ शहर की जो सबसे बड़ी खुशबू छिपी है तो वो है हमारी लखनऊ की अदाकारा "सदफ़ जाफ़र".. सदफ़ का बॉलीवुड फिल्म में ये पहला काम है और उनका रोल बस कुछ सेकंड का ही है मगर इस कुछ सेकंड के रोल में जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वो है सदफ़ का मुश्किलों भरा सफ़र जिसे तय कर के आज वो इस मुकाम तक पहुँच पायी हैं
सदफ़ लखनऊ के एक संभ्रांत परिवार से सम्बन्ध रखती हैं.. हमेशा से निडर रही सदफ़ ने अपनी दुनिया अपनी शर्तों पर जीने के सपने देखे थे.. टाइम्स ऑफ़ इंडिया में नौकरी की और उसी दौरान एक शख्स उनकी ज़िन्दगी में आया जिसके साथ उम्र बिताने की सोच ली.. मगर शादी के बाद सब कुछ वैसा नहीं चला जैसा सदफ़ ने सोचा था.. जो इंसान शादी से पहले महिलाओं की आज़ादी के पक्ष में था शादी होते ही बदल गया.. दो बच्चे हो गए मगर पारंपरिक बंदिशों के साथ मानसिक और सामाजिक आज़ादी की जद्दोजहद ने तब तक क्रूर रूप ले लिया था और हाथापाई रोज़ की बात बन गयी.. अपनी सूजी हुई आखों और नील पड़े चहरे के साथ ख़ुद को शीशे में निहारना सदफ़ को मानसिक अवसाद की स्थिति में गहरे घुसेड़ता चला गया
और जैसा कि हर अवसाद का अंत होता है, सदफ़ के साथ भी वही हुवा.. नींद की ढ़ेरों गोलियां खा कर सदफ़ ने इस क्रूर समाज से विदा लेनी की सोच ली.. मगर शायद "ख़ुदा" उनको अपने पास बुलाने के लिए तैयार नहीं था.. आत्महत्या की कोशिश के बाद जान तो बच गयी मगर पति ने सहारा देने का तो दूर बल्कि बेरुख़ी दिखाते हुवे सदफ़ को "पागलखाने" में डाल दिया
सदफ़ बताती हैं कि पागलखाने के वो तीन दिन सदफ़ के लिए वरदान साबित हुवे और इन तीन दिनों में उनकी सोच को नयी उड़ान मिली
सदफ़ कहती हैं कि "पागलखाने में पड़े हुवे मैं सोच रही थी अगर मैं मर जाती तो फिर वो सब सपने धरे के धरे रह जाते जिनके बारे में सोचती थी, क्यूंकि ये सपने तभी तक हमारे साथ हैं जब तक हमारी जान इस शरीर में है.. मेरा मरना तो दरअसल उनकी जीत होती जो ये सोचते थे कि मैं गलत हूँ.. और मरकर तो आप सचमुच कुछ नहीं कर सकते हैं.. कुछ करने के लिए या समाज में कोई भी बदलाव लाने के लिए आपको जीना ही होता है"
पागलखाने से वापस आने के बाद नौकरी करते हुवे सदफ़ ने अपनी पढ़ाई शुरू की.. B.E.D (बीएड) पूरा किया.. सदफ़ का फिर से उठ खड़े होना उनके पति के अहम् को चुभ गया और वाद विवाद और मार पीट फिर शुरू हो गयी.. मगर सदफ़ ने अब न झुकने की सोच ली थी और फिर उनकी इस हठधर्मी और हार न मानने की आदत से उनके पति ने अंत में उन्हें छोड़ दिया
अकेले दो बच्चों के साथ भारतीय समाज में रहना कोई आसान काम नहीं है.. मगर सदफ़ कहती हैं कि दोस्तों और क़रीबी लोगों ने जिस तरह उनका साथ दिया और उन्हें हाथों हाथ लिया उसकी वो शुक्रगुज़ार हैं.. अगर दोस्त न होते तो शायद जो सदफ़ आज हैं वो सदफ़ न होती.. इस दौरान अपनी जीविका चलते रहने के लिए सदफ़ ने छोटी मोटी नौकरी करना जारी रखा.. और फिर पति से अलग होने के क़रीब एक साल बाद सदफ़ लखनऊ के प्रतिष्ठित सिटी मोंटेसरी स्कूल में टीचर बन गयीं
बच्चों को पालना और स्कूल में पढ़ाना अब सदफ़ को जीने का मक़सद दे रहा था.. मगर कभी कभी ऐसा लगता था कि जैसे भीतर कुछ तो है जो बाहर आने को तड़प रहा है.. और इसी तड़प को देखकर सदफ के एक दोस्त ने उन्हें थिएटर करने की सलाह दे दी.. अपने दोस्त की बात से प्रेरित हो कर 2015 में सदफ़ ने अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर लखनऊ में "मॉकिंग बर्ड" थिएटर ग्रुप का निर्माण किया और फिर कई नाटकों का मंचन किया जो आज भी लगातार जारी हैं.. इन्ही नाटकों से प्रभावित हो कर एक मित्र ने उनके वीडियोस "लखनऊ सेंट्रल" के ऑडिशन के लिए भेज दिए.. लखनऊ सेंट्रल में इनका किरदार पहले थोड़ा ज़्यादा अवधि का था मगर सदफ को स्कूल से समय न मिल पाने के कारण वो छोटा हो गया.. मगर इस कुछ सेकंड के रोल ने जीवन की जितनी जद्दोजहद देखी वो हमारे और आप सब के लिए एक मिसाल है
जीवन के बारे में अब सदफ़ का नजरिया पूरी तरह से बदल चुका है.. सदफ़ कहती हैं "कि कभी कभी मैं सोचती हूँ कि अगर उस दिन उन नींद की गोलियों ने अपना काम कर दिया होता तो मैंने कितना कुछ खो दिया होता जो आज मैं कर पा रही हूँ"
दुबारा मिली इस ज़िन्दगी ने सदफ़ को क्या मायने दिए हैं? इस सवाल के जवाब में सदफ़ अपने जीवन की एक घटना का ज़िक्र करती हैं:
"एक सुबह जब मैं स्कूल के लिए जा रहीं थीं, तो मैंने एक बूढ़े आदमी और एक औरत को सड़क के किनारे रोते और ठिठुरते देखा.. मगर चूँकि स्कूल में इम्तेहान चल रहे थे इसलिए मुझे स्कूल जल्दी पहुंचना था, इसलिए मैं उस बूढ़े और बूढी का हाल न पूछ सकी.. मगर ये घटना पूरे दिन मेरे दिमाग में चक्कर काटती रही.. मैं सोचती रही कि जाने किस परेशानी में वो दोनों रहे होंगे.. दुसरे दिन जब मैं उसी रोड से वापस जा रही थी तो मैंने देखा कि एक औरत और आदमी एक दुसरे से लिपट कर रो रहे थे.. उस वक़्त भी मैं जल्दी में थी और घर पहुँच कर मुझे बहुत ज़रूरी काम निपटाने थे.. मगर घर पहुँच कर मेरा दिल न लगा और मैं वापस वहीँ गयी.. वो दोनों आदमी और औरत वहीँ थे.. मैंने जब उनसे रोने की वजह पूछी तो आदमी ने रोते हुवे बताया कि ये उसकी औरत है और इसको बच्चा होने वाला है मगर उनके पास पैसे नहीं हैं कि वो अस्पताल में भर्ती हो सकें.. अस्पताल की पर्ची देखकर ये पता चला कि औरत अनिमिक है और बच्चा बस होने ही वाला है.. पहले मैंने एटीएम से थोड़े पैसे निकाले और उस आदमी की जेब में डाले और एम्बुलेंस को फ़ोन किया और थोड़ी ही देर में एम्बुलेंस आ गयी.. एम्बुलेंस में उन्हें बिठा कर मैं घर आ गयी खाना खाने.. थोड़ी देर बाद एम्बुलेंस के ड्राईवर का फ़ोन आया और उसने बताया कि लोहिया अस्पताल में डॉक्टर ने भर्ती करने से मना कर दिया ये कह कर कि इस औरत की नौ महीने से अभी तक कोई जांच नहीं हुई है और पता नहीं कि इसे एड्स हो या टीबी हो, इसलिए हम रिस्क नहीं ले सकते हैं.. ड्राईवर ने कहा कि वो अब वो क्वीन मेरी अस्पताल ले कर आ गया है.. मैं भाग कर अस्पताल पहुंची तो पता चला कि तुरंत बच्चा पैदा हुवा है.. डॉक्टर ने बच्चा ला कर मेरी गोद में रख दिया.. वो बच्चा इतना प्यारा था कि उसे देखकर मुझे जो ख़ुशी मिली उसका मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकती हूँ.. मैं सोच रही थी कि मैं कितनी नादान थी जो अपनी ज़िन्दगी ख़त्म करने जा रही थी जबकि मैं इस दुनिया में जाने कितनी नईं जिंदगियां बचा सकती हूँ.. ज़िन्दगी ख़त्म करना कोई बहादुरी की बात नहीं है मगर ऐसी जिन्दगियों को बचाना बहादुरी का काम है"
सदफ़ ने उस बच्चे के जन्म के बाद उसके लिए सब कुछ किया.. उसकी माँ के पौष्टिक खाने से लेकर उस नन्हीं जान के लिए कपड़े, दूध और ज़रूरी चीज़ें.. आज ये बच्चा दो साल का हो चुका है और सदफ़ अभी भी उसे देखने अक्सर जाया करती हैं.. सदफ़ का उसके साथ एक ऐसा रिश्ता बन चुका है जिसे शब्दों में बताया नहीं जा सकता है.. सदफ़ की तमन्ना है कि आगे वो उस बच्चे की पढ़ाई लिखाई की पूरी ज़िम्मेदारी उठायें.. एक सिंगल औरत के लिए अपने दो बच्चों के साथ एक तीसरे बच्चे को भी पालना आसान नहीं है.. मगर सदफ़ को आशा है कि आगे वो ऐसा कर पाएंगी
ये पूछने पर कि क्या वो अब फ़िल्म ही करेंगी तो सदफ़ कहती हैं "फ़िल्म के बारे में मेरा कोई ख़ास प्लान नहीं है.. पढ़ाना मेरी रूचि है मैं चाहती हूँ कि मैं जब तक भी पढ़ा पाऊं बच्चों को पढ़ाती रहूँ.. अभी एक फ़िल्म में मुझे एक और रोल मिल चुका है जिसका नाम अभी मैं नहीं बता सकती.. मगर इस फिल्म में मेरा रोल लम्बा और असरदार है"
लखनऊ सेंट्रल में सदफ़ की थोड़ी सी झलक के पीछे उनकी सालों की जद्दोजहद और सामजिक न्याय और अव्यवस्था की दास्ताँ छिपी है.. इसलिए आप जब भी इस मूवी को देखें तो सदफ़ के इस जद्दोजहद की कहानी को ज़रूर याद करें