Shayari on ‘Maa’… By Munavvar Rana (Part – 2)

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हादसों की गर्द से ख़ुद को बचाने के लिए

माँ ! हम अपने साथ बस तेरी दुआ ले जायेंगे

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हवा उड़ाए लिए जा रही है हर चादर

पुराने लोग सभी इन्तेक़ाल करने लगे

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ऐ ख़ुदा ! फूल —से बच्चों की हिफ़ाज़त करना

मुफ़लिसी चाह रही है मेरे घर में रहना

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हमें हरीफ़ों की तादाद क्यों बताते हो

हमारे साथ भी बेटा जवान रहता है

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ख़ुद को इस भीड़ में तन्हा नहीं होने देंगे

माँ तुझे हम अभी बूढ़ा नहीं होने देंगे

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जब भी देखा मेरे किरदार पे धब्बा कोई

देर तक बैठ के तन्हाई में रोया कोई

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ख़ुदा करे कि उम्मीदों के हाथ पीले हों

अभी तलक तो गुज़ारी है इद्दतों की तरह

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घर की दहलीज़ पे रौशन हैं वो बुझती आँखें

मुझको मत रोक मुझे लौट के घर जाना है

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यहीं रहूँगा कहीं उम्र भर न जाउँगा

ज़मीन माँ है इसे छोड़ कर न जाऊँगा

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स्टेशन से वापस आकर बूढ़ी आँखें सोचती हैं

पत्ते देहाती रहते हैं फल शहरी हो जाते हैं

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अब देखिये कौम आए जनाज़े को उठाने

यूँ तार तो मेरे सभी बेटों को मिलेगा

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अब अँधेरा मुस्तक़िल रहता है इस दहलीज़ पर

जो हमारी मुन्तज़िर रहती थीं आँखें बुझ गईं

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अगर किसी की दुआ में असर नहीं होता

तो मेरे पास से क्यों तीर आ के लौट गया

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अभी ज़िन्दा है माँ मेरी मुझे कु्छ भी नहीं होगा

मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है

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कहीं बे्नूर न हो जायें वो बूढ़ी आँखें

घर में डरते थे ख़बर भी मेरे भाई देते

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क्या जाने कहाँ होते मेरे फूल-से बच्चे

विरसे में अगर माँ की दुआ भी नहीं मिलती

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कुछ नहीं होगा तो आँचल में छुपा लेगी मुझे

माँ कभी सर पे खुली छत नहीं रहने देगी

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क़दमों में ला के डाल दीं सब नेमतें मगर

सौतेली माँ को बच्चे से नफ़रत वही रही

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धँसती हुई क़ब्रों की तरफ़ देख लिया था

माँ बाप के चेहरों मी तरफ़ देख लिया था

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कोई दुखी हो कभी कहना नहीं पड़ता उससे

वो ज़रूरत को तलबगार से पहचानता है

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  Posted on Tuesday, August 11th, 2009 at 6:26 PM under   Sher-o-shayari | RSS 2.0 Feed
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