शिक्षा का व्यवसायिकीकरण: अभिभावकों की चिंता में वृद्धि, पढ़ाई के मापदंड पर उठे सवाल!
क्या भारतीय माता-पिता की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं, अपने बच्चों की पढ़ाई को लेकर माता-पिता क्यों इतने चिंतित होते हैं, क्या हम अपने बच्चों पर पढ़ाई का बोझ और दबाव बढ़ा रहे हैं?
आइए "Siddharth Tabish" के Facebook वॉल से जाने-
ज्यादातर मध्यम और निम्नवर्गीय अभिभावक इस बात से परेशान रहते हैं कि उनका बेटा पढ़ता नहीं है
अगर आप उन अभिभावकों से ये पूछिए कि आपके हिसाब से उसे कितने घंटे और कितने दिन तक पढ़ना चाहिए तो उनके पास इसका कोई जवाब नहीं होता है.. वो बस ये जानते हैं और अपने आसपास ये देखा करते हैं कि फलाने का बेटा या बेटी दिन भर पढ़ा करता है बस इसी लिए उन्हें अपना बच्चा कम पढ़ता लिखता महसूस होता है.. इनके पास पढ़ने का कोई पैमाना नहीं होता है, बस एक तरह की फ्रस्ट्रेशन होती है.. एक लत होती है पढ़ाई की और उसी लत या नशे के तहत ये अपने बच्चे को ज़्यादा पढ़ने के लिए कोसते रहते हैं
पढ़ाई कोई प्राकृतिक चीज़ नहीं है.. ज्ञान अर्जित करने से शुरू हुआ ये सिलसिला कब "रटने" वाली शिक्षा में बदल गया, ये आम इंसान समझ ही नहीं पाया.. चालाक लोगों ने लोगों में शिक्षा के प्रति पागलपन को देखते हुवे इसे एक सफ़ल व्यवसाय में बदल लिया.. वो स्कूलों में कोर्स पर कोर्स बढ़ाते गए.. एक होड़ लग गई इस बात की कि जो स्कूल बच्चों को एक सेकंड की भी फुर्सत नहीं देगा पढ़ाई से, वो सबसे अच्छा स्कूल माना जाएगा
फिर इन्हीं व्यवसायियों ने एक कहावत बनाई "पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे होगे ख़राब".. ये कहावत पढ़ाई के पागलपन के इंसानों पर हावी होने की एक बहुत अच्छी मिसाल है.. जहां पहले स्टेडियम और मैदान बच्चों से भरे रहते थे, वहीं वो धीरे धीरे ख़ाली होने लगे और स्कूल बच्चों से भरने लगे.. और अब तो ये हाल हो गया है कि स्टेडियम और खेल के मैदान में हमारे बच्चों की एक प्रतिशत आबादी भी अब नहीं जाती है.. मगर इंसानों को इस बात का कोई दुख नहीं है.. किसी भी मध्यम वर्गीय भारतीय को आप ये कहते नहीं पाएंगे कि "हमारा बेटा खेलता ही नहीं है".. उनकी हमेशा एक शिकायत रहती है "हमारा बेटा पढ़ता नहीं है".. खेलने से उनका बच्चा ख़राब हो जाएगा, ये उनके मन और मस्तिष्क में गहरे बैठ चुका है
जो लोग सम्पन्न होते हैं, आप उनको जल्दी ये शिकायत करते नहीं पाएंगे कि उनका बेटा पढ़ता नहीं है.. क्योंकि उनके घरों में पढ़ाई उनके लिए बुढ़ापे में रोटी पाने का साधन नहीं होती है.. ज्यादातर अमीरों के लड़कों को ऊंची ऊंची सरकारी सेवाओं में पहुंचने की कोई लालसा नहीं होती है.. उन्हें ऊंचे पद और प्रतिष्ठा की चाह नहीं होती है क्योंकि वो खाए पिए और भरे हुवे होते हैं.. यूपी और बिहार के गरीब घरों से आए बच्चे सबसे ज़्यादा आई इस और पी सी एस में जाते हैं.. ये कोई काबिलियत की बात नहीं होती है, या बहुत अच्छी बात नहीं होती है.. ये हीनता से उपजी कुंठा पर विजय पाने की बात होती है.. रटने वाली पढ़ाई अब और कुछ नहीं बल्कि सामाजिक कुंठा और वर्गीकरण से उपजी हीनता को दूर भगाने का साधन मात्र है.. ये वर्गीकरण भी चालक और धूर्तों का बनाया है, ये कुंठा उपजाना भी उन्हीं का व्यवसाय है और फिर इसे आपको शिक्षा द्वारा छुटकारा दिलाना भी उनका ही व्यवसाय है.. एक पूरा लूप है कुंठा, हीनता और उससे छुटकारे का.. और ये पूरा व्यवसाय है.. ज्ञान अर्जन का इसमें दूर दूर तक कहीं कोई रोल होता ही नहीं है.. हीनता से निकला गरीब लड़का आई एस बनने के बाद दूसरों को हीन बनाना शुरू कर देता है.. वो रूल करने लगता है.. शिक्षा से उसकी हीनता नहीं गई बल्कि वो चार गुनी होकर दूसरों में ट्रांसफर हुई
शिक्षा को लेकर अपना नशा कम कीजिए.. अपना नशा आपने बच्चों में मत ट्रांसफर कीजिए.. उन्हें अपनी पढ़ाई और पढ़ने का समय चुनने का अवसर दीजिए.. अपने बच्चों को पूरी तरह से आज़ाद कीजिए.. मौजूदा शिक्षा कोई बड़ी अच्छी चीज़ नहीं है.. ये पूरा व्यवसाय है.. आने वाले समय में मौजूदा शिक्षा पद्धति पूरी तरह से समाप्त हो जाएगी.. बस समय की बात है.. जैसे सती प्रथा में उस दौर के इंसानों को कोई बुराई नज़र नहीं आती थी वही हाल आपका है.. हमारे और आपके बच्चे सर्कस के जानवरों से भी बदतर जीवन जीते हैं.. मगर अभी इसे आप देख नहीं पा रहे हैं.. क्योंकि आप नशे में हैं
~सिद्धार्थ ताबिश
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