इस्लाम का इतिहास - भाग 21

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History of Islam


इस्लाम का इतिहास - भाग 21



काबे का पुनर्निर्माण आसान काम नहीं था.. जब पैसों का इंतज़ाम और उसमे काम करने वालों का जुगाड़ हो गया तो एक दूसरा भय कुरैश और अन्य क़बीले के लोगों को खाने लगा था.. और वो भय था काबा को गिराना.. क्यूंकि बिना गिराये तो उसका पुनर्निर्माण संभव नहीं था

काबे की दीवारों को गिराने के सम्बन्ध में कई कहानियां प्रचलित हैं जो उस समय के इतिहासकारों ने दर्ज की हैं

पहले दीवार को गिराने की ज़िम्मेदारी बनू मखज़ूम क़बीले के "अबू वहब" ने ली.. अबू वहब मुहम्मद की दादी "फातिमा" के भाई थे.. मगर कहते हैं कि उन्होंने जैसे ही दीवार के ऊपर से एक पत्थर हटा की नीचे रखा वो पत्थर वापस वहीँ ऊपर पहुँच गया जहाँ से उसे उठाया गया था..इस बात से सारे लोग बहुत डर गए और पीछे हट गए.. फिर बनू मखज़ूम के प्रमुख "वलीद" ने इसकी ज़िम्मेदारी ली.. वो ये शब्द कहते हुवे आगे बढ़े कि "या अल्लाह, हम इसको अच्छा बनाने के गिराने जा रहे हैं इसलिए हम पर रहम कर".. और ये कह कर उन्होंने "यमनी" कोने और "काले पत्थर" वाले कोने के बीच को दीवार गिराना शुरू किया.. एक दीवार को पूरा गिरा कर सब लोग रात में सोने घर चले गए ये कह कर कि अगर कल सब कुछ ऐसा ही रहा तो काम आगे शुरू होगा

दुसरे दिन सुबह जब सब लोग फिर इक्कट्ठा हुवे तो देखा कि जिस दीवार को गिराया था वो गिरी हुई ही थी.. इस से मक्के के लोगों में उत्साह आया और उन्होंने ये समझ लिया कि अल्लाह अब राज़ी हो गया है.. और फिर सब लोग वलीद के साथ मिलकर अन्य दीवारों को भी गिराने लगे

दीवार गिराने के बाद ये लोग "नींव" तक पहुंचे.. अरबों की यही मान्यता थी कि इस नींव को पैग़म्बर इब्राहीम ने रखा था.. नींव में उन्हें हरे रंग के बड़े बड़े पत्थर रखे मिले.. ये पत्थर एक दुसरे के अगल बगल जोड़ कर रखे गए थे.. ये पत्थर दिखने में ऊंट ले कूबड़ जैसे लगते थे.. ये इब्राहीम द्वारा रखी गयी नीव थी.. मरम्मत करने वालों में से एक ने एक लकड़ी के लठ को लीवर की तरह इस्तेमाल करते हुवे इन पत्थरों को अपनी जगह से उखाड़ना चाहा.. कहते हैं तभी पूरे मक्का में ज़बरदस्त भूकंप महसूस किया गया.. इस घटना से मरम्मत करने वाले लोग समझ गए कि उन्हें इब्राहीम की नींव को हाथ नहीं लगाना है और फिर उन्होंने नीव के उन हरे पत्थरों को हाथ नहीं लगाया

"काले पत्थर" के नीचे की नीव में मरम्मत करने वालों को एक दस्तावेज़ मिला जो सीरियानी भाषा में लिखा हुवा था.. एक यहूदी ने जब उसे पढ़ा तो उसमे लिखा था

"मैं ख़ुदा हूँ, बक्का का ख़ुदा.. मैंने इसे उस दिन बनाया जिस दिन स्वर्ग और नर्क का निर्माण किया.. उस दिन जिस दिन सूरज और चाँद बनाया.. और मैंने इसके चारों तरफ सात फरिश्तों को बिठाया.. और बक्का तब तक रहेगा जब तक इसके पास की दोनों पहाड़ियां खड़ी रहेंगी और सबको दूध और पानी से धन्य करती रहेगीं"


क्रमशः ....


नोट: काबा और उस के आस पास के स्थान को बक्का के नाम से बुलाया जाता था.. काबा को क़ुरआन में भी बक्का कहा गया..मक्का पूरे शहर को कहा जाता है जबकि काबा और उसके आस पास पूजा के स्थान को बक्का कहा जाता था


~ताबिश




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