इस्लाम का इतिहास - भाग 2
अब्दुल मुत्तलिब (मुहम्मद s.a.w. के दादा) काबे में "हबल" देवता की मूर्ति के सामने खड़े हो कर धार्मिक कर्म काण्ड करते तो थे मगर उनका विश्वास हज़रत इब्राहीम वाले एक अल्लाह में अधिक था..
"काबा" उस समय मक्का और उसके आस पास के लोगों के लिए आस्था का सबसे बड़ा केंद्र था जिसमे "मोआब" और "मेसोपोटामिया" से आये हुवे देवी और देवताओं की मूर्तियां थी.. काबे के अंदर और उसके आसपास को मिला कर कुल 360 देवताओं की मूर्तियां थी जो साल के 360 दिनों के सूचक थे.. और इनमे से "हबल" प्रमुख देवता के रूप में काबे के भीतर विराजमान थे.. काबा और उसके आसपास स्थित सारे देवता एक अल्लाह के आधीन थे.. "हबल" की आराधना और कर्मकांडों पर प्रमुख नियंत्रण "क़ुरैश" कबीले का था जिनमे पैग़म्बर मुहम्मद का जन्म हुवा
मक्का के आसपास प्रमुख मंदिरों में काबे के बाद जिसको सबसे अधिक सम्मान दिया था वो था "ख़ुदा की बेटियों" का मंदिर.. जो मुख्य रूप से तीन देवियाँ "अल-लत", "अल-उज़्ज़ा" और "मिनत" थी..पहले के अरबों की तरह अब्दुल मुत्तलिब का पालन पोषण देवी "मिनत" की आराधना करने वालों के बीच हुवा था.. देवी "मिनत" का मंदिर मक्का के "क़ुदयद" में था.. मगर कुरैश घराने के लिए जिस मंदिर की काबा के बाद सबसे ज़्यादा आस्था थी वो थी "अल-उज़्ज़ा" का मंदिर जो मक्का के दक्षिण में एक दिन की ऊंट यात्रा की दूरी पर था.. और वहां से एक दिन की ऊंट से दूरी पर ताइफ़ में देवी "अल-लत" का मंदिर था..
ताइफ़ के लोग और अन्य मंदिरों के लोग ये बात अच्छी तरह जानते थे कि भले ही उनके मंदिर कितनी भी प्रसिद्धि क्यों न पा लें मगर उनका स्थान "काबा" से कम ही रहेगा और इस बात के लिए वो लोग क़ुरैश कबीले से जलते थे.. वहीँ कुरैश कबीला के पास किसी से जलने का कोई कारण नहीं था क्योंकि उनके पास "ख़ुदा का घर" काबा था जिसने उस कबीले के लोगों को "ख़ुदा के लोग" की उपाधि दे रखी थी और अन्य मंदिरों और दूसरे कबीले के लोग कुरैश से हमेशा कम समझे जाते थे..
क्रमशः ..
~ताबिश