इस्लाम का इतिहास - भाग 18
शादी के दिन ख़दीजा शादी ने तोहफ़े के तौर पर मुहम्मद को एक "ग़ुलाम लड़का" दिया जिसका नाम "ज़ैद" था.. उस समय मुहम्मद पच्चीस के थे और ज़ैद मुहम्मद से दस साल छोटा था
ज़ैद का जन्म "कल्ब" क़बीले के एक संपन्न परिवार में हुवा था.. एक बार जब वो अपनी माँ के साथ अपने ननिहाल वालों से मिलने गया था उसी दौरान कुछ घुड़सवार लुटेरों ने उनके तम्बुओं पर हमला कर के ज़ैद का अपहरण कर लिया और उसे ले जा कर यमन के उक्कज़ की बाजार में ग़ुलाम बना कर बेच दिया.. ज़ैद के परिवार वालों ने बाद में उसे बहुत ढूंढा मगर वो तब तक वो ग़ुलाम बाज़ार में बिक कर मक्का पहुँच चुका था
गुलामों की बाजार से "हाकिम इब्न हिजाम" ने ज़ैद को ख़रीद लिया था और बाद में अपनी "बुवा" ख़दीजा को तोहफ़े के तौर पर दे दिया था
ज़ैद के साथ कुछ दिन रहने के बाद मुहम्मद को ज़ैद से बड़ा लगाव हो गया था और वो उसे अल-हबीब (प्रिय) कहने लगे थे.. ज़ैद भी मुहम्मद में अपने माँ और बाप दोनों का खोया हुवा प्यार पाता था.. तीर्थयात्रा के दिनों में जब एक बार ज़ैद काबा के पास था तभी उसने अपने कबीले के कुछ लोगों को वहां देखा.. उन्हें देख वो पहचान गया और सोचा कि अपने माँ और बाप को सन्देश भेज जाय.. मगर इतने बरसों बाद बस सिर्फ सन्देश? और वो भी इतने दिनों से अपने खोये हुवे बेटे द्वारा? तो उसने उन्हें एक तोहफा भेजने का निर्णय लिया और उस दौर के अरब में एक कविता से बेहतर तोहफ़ा और क्या हो सकता था? तो उसने चार लाइन की कविता अपने माँ और बाप के लिए एक सन्देश के तौर पर बनायी.. कविता कुछ इस प्रकार थी
भले ही मैं आप लोगों से दूर हूँ,
मगर अपनी बात आप तक पहुंचा रहा हूँ,
अपने क़बिले के लोगों द्वारा,
ख़ुदा के घर से, जहाँ मैं रहता हूँ,
जहां ख़ुदा ने अपना वास बना रखा है,
अब आप अपने दुखों को भूल जाओ,
अब मुझे ढूँढने के लिए इधर उधर मत भागो,
ख़ुदा का शुक्र है
जो उसने मुझे ऐसा परिवार दिया,
क्योंकि ये लोग सबसे ऊँचे हैं,
हर ओहदे में और हर क़बीले में
ये कविता वो जा के अपने क़बीले के लोगों को सुनाता है और उनसे बोलता है इस बात को अपने पिता तक पहुंचाने के लिए.. सन्देश मिलते ही ज़ैद के पिता अपने भाई के साथ मक्का की ओर निकल पड़ते हैं और मुहम्मद से मिलकर अपने बेटे को आज़ाद करने की मिन्नतें करते हैं.. वो कहते हैं कि मुहमद जो चाहें वो उसके बदले में ले लें मगर उनके बेटे को आज़ाद कर दें
मुहम्मद ज़ैद के पिता से कहते हैं कि मैं इसे ज़ैद के ऊपर छोड़ता हूँ.. अगर ज़ैद आपके साथ जाना चाहता है तो मैं इसके बदले में एक भी दीनार नहीं लूँगा.. फिर वो ज़ैद से पूछते हैं "तुम्हारी क्या मर्ज़ी है? तुम इतने दिन मेरी संगति में रहे हो और अब वक़्त आया है जब तुम्हे या तो मुझे या अपने परिवार को चुनना होगा"
जवाब में ज़ैद अपने बाप से कहता है "ये बात सच है कि आप मेरे पिता हैं मगर अगर आप दोनों में से एक को चुनने की बात आएगी तो मैं मुहम्मद को चुनूंगा क्योंकि इनमे मुझे अपने माँ और बाप दोनों दिखते हैं"
ज़ैद के पिता बहुत अचंभित हो कर कहते हैं "तुम ग़ुलामी चुनना चाहोगे आज़ादी की जगह और अपने पिता, चाचा, माँ और परिवार की जगह इस आदमी को चुनोगे?"
ज़ैद कहता है "अगर ऐसा है तो यही सहीं है क्यूंकि मुहम्मद मेरे लिए सबसे ऊपर हैं"
ये बातें सुनने के बाद मुहम्मद ज़ैद और उसके पिता का हाथ पकड़ते हैं और काबा की ओर ले जाते हैं और जा कर काबा की सीढ़ियों पर खड़े होते हैं.. उस दौर में जब किसी को कोई शपथ लेनी होती है और कानूनी तौर से कोई घोषणा करनी होती है तो वो यहाँ खड़े हो कर करता है.. मुहम्मद वहाँ से तीर्थयत्रोयों की भीड़ से कहते हैं "लोगों सुनो, तुम सब लोग गवाह रहना इस बात के लिए कि आज से "ज़ैद इब्न हारिसह" को मैं अपना बेटा बनाता हूँ और आज के बाद ये ज़ैद इब्ने मुहमद के नाम से जाना जाएगा"
ये सुनने के बाद ज़ैद के पिता और चाचा की आँखें भर आती हैं.. उनको बहुत सुकून मिलता है और वो समझ जाते हैं कि अब उनका बेटा गुलाम नहीं रहा बल्कि कुरैश क़बीले के एक ईमानदार इंसान का बेटा बन चुका है.. और फिर वो बिना ज़ैद से दुबारा कुछ कहे अपने शहर वापस चले जाते है
क्रमशः...
~ताबिश