क्या भारतीय दर्शन और अरब दर्शन में नग्नता की समझ एक है?

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What is nudity according to Hinduism?

Image Credit: Fulldhamaal.com


आमिर खान ने अपनी बिटिया के साथ अपने फेसबुक पेज पर एक फ़ोटो डाली.. जिसमे उनकी जवान बेटी उनके ऊपर चढ़ के बैठी है और उनकी जाघें दिख रही है.. इन्टरनेट पर ये फ़ोटो आते ही ट्रॉल्स ने आमिर को घेर लिया और उनसे उस फ़ोटो को हटाने को बोलने लगे.. कई मुसलमानों ने गाली भी निकाली और आमिर और उनकी बेटी के बारे में अपशब्द कहे.. एक जवान लड़की की अगर जांघ दिख जाए और मुसलमान उस को ढंकने के लिए बोलें तो ये बात समझ में आती है क्यूंकि इस्लामिक शिक्षा उन्हें ऐसा करने की इजाज़त नहीं देती है.. मगर अगर हिन्दू भी जांघ खुली जवान लड़की को अपशब्द कहें, उसे अमर्यादित बोलें और उसी तरह से ट्रोल करें जैसे मुसलमान कर रहे हैं तो ये सोचने का विषय बन जाता है कि हिन्दू अपने धर्म और संस्कृति की किस शिक्षा के तहत ऐसा कर रहे हैं.. भारत के हिन्दुवों की मर्यादा और संस्कृति के क्या वही मूल थे और हैं जो कि अरबों के थे?  

वात्स्यायन ने भारत में जब कामसूत्र लिखी उस समय भारत में लोग सनातन धर्म को मानने और जानने वाले थे.. कामसूत्र लगभग ईसा से भी चार सौ से दो सौ साल पहले की लिखी हुई मानी जाती है.. इस्लाम आने के लगभग ढाई हज़ार साल पहले.. ये मनुष्य की मूल और सबसे पसंदीदा प्रवृति “काम” यानि “सेक्स” पर आधारित किताब है.. कामसूत्र को लिखा इस तरह गया है कि इसको पढने पर आपको ये महसूस होगा कि जैसे सेक्स को किसी दैवीय अनुभूति और दैवीय कार्य की तरह वात्स्यायन अपने पढने वालों को समझा रहे हैं.. ये पूरी तरह से दैवीय है और सेक्स की विभिन्न मुद्राओं और क्रियाकलापों का लेखक ने  इस तरह से वर्णन किया है कि जैसे काम उस दौर के लेखक के लिए किसी भी धार्मिक अनुष्ठान से कम नहीं था.. कामसूत्र का आधार वात्स्यायन से भी पहले लिखा गया भारतीय शास्त्र “कामशास्त्र” है.. ये इस बात की गवाही है कि वात्स्यायन से भी बहुत पहले “काम” यानि “सेक्स” को लेकर सनातन के मानने वालों में कैसी धारणा थी और वो लोग “सेक्स” से भागते नहीं थे बल्कि उसे दैवीय और हमारी इक्षाओं का मूल समझ कर स्वीकार करते थे.. और ये उस धर्म की धार्मिक धारणा थी जिसे हम आज हिन्दू या सनातन धर्म कहते हैं 

अगर हिन्दू धर्म में नग्नता विर्जित होती तो क्या कामसूत्र कभी लिखी जाती? अगर हिन्दू धर्म में नग्नता को एक सामाजिक बुराई के रूप में देखा जाता तो क्या लोग लिंग और योनी की पूजा करते कभी? सोचिये इस बारे में कि वो लोग हम और आप से “मानसिक” रूप से कितने स्वस्थ और उच्च रहे होंगे जिन्होंने नग्नता और “काम” को दैवीय समझ के स्वीकारा और न सिर्फ़ स्वीकारा  बल्कि उससे उत्पन्न होने वाली उर्जा को पहचाना और उसकी पूजा की.. काम या सेक्स की ऊर्जा को समझ के उसे ध्यान में सम्मिलित कर के चेतना की वही उंचाईयां छुईं जो संभवतः बुद्ध या अन्य लोगों ने छुई.. ये भारत में संभव हुवा था और ये सेक्स को नकार कर संभव नहीं हुवा था 

तो अचानक ऐसा क्या हुवा कि आज का हिन्दू, जो उसी सनातन को मानने का दावा करता हैं जिसे वात्सयायन भी मानते थे, कैसे अचानक उसके धार्मिक मूल्य एक जवान लड़की की नंगी जांघ देख कर खतरे में पड़ने लगे.. कैसे सिर्फ नंगी जंघा उसे अश्लील लगने लगी और कैसे लड़कियों का अपने आप को पूरी तरह से ढंकना उसे “सभ्य” और मर्यादित लगने लगा?

ये बहुत धीरे धीरे हुवा.. और ज़ाहिर सी बात है ये हुवा उसी सोच की वजह से जो अरबों के द्वारा भारत पहुंची.. क्यूंकि ये हम और आप मान ही नहीं सकते कि औरत की खुली हुई जांघ पर प्राचीन भारत में एतराज़ जताया जाता था.. ये मानसिकता यहाँ तब पनपी जब धीरे धीरे भारत का इस्लामीकरण हुवा

मुझे इस बात से नहीं एतराज़ है कि अरब क्या सोचते हैं और उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताएं क्या हैं.. मुझे इस बात से एतराज़ है हिन्दू अरबों की तरह कैसे सोचने लगा.. क्यूंकि ये न तो यहाँ की संस्कृति है और न ही सभ्यता.. कैसे हिन्दू किसी लड़की की नंगी जांघ को अश्लील कहने लगा और अगर नंगी जांघ देख कर उसे “काम” या सेक्स की भी याद आती है तो कैसे उसे “काम” अश्लील और अमर्यादित दिखने लगा? और जब हालत ये हैं कि भारत के इस्लामीकरण की हर हिन्दू को चिंता है तो क्या वो ये देख नहीं पा रहा है कि उसने अरबों की तरह सोचना शुरू कर दिया और ख़ुद इस्लाम मानने लगा है? आमिर की बेटी की खुली जांघ से उन हिन्दुवों को सबसे ज्यादा परेशानी है जो बहुत अधिक धार्मिक हैं, कट्टर धार्मिक हैं और हिन्दू धर्म के रक्षक हैं.. ये लोग किस तरह तरह का सनातन लायेंगे भारत में ये एक बहुत बड़ा प्रश्न है अब

जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी ने सत्ता में आते ही “रोमियो स्कॉड” की टीम बनायीं और पार्क में घूम रहे युवा जोड़ों को पुलिस ने पकड़ना शुरू कर दिया तो मैं समझ गया था कि किस तरह का “हिंदुत्व” ये लोग भारत में लाने का सोच रहे हैं.. ऐसा हिंदुत्व जहाँ मुसलमान तो सच में चैन से रहेंगे मगर “हिन्दू” घुट कर मर जाएगा.. और हाल जब ये हो कि मठों और मंदिरों से निकले योगी और साधू “प्रेम” से घृणा करें तो फिर “काम” (सेक्स) इन साधुवों और योगियों के लिए क्या गज़ब ढाएगा? मुझे योगी जी की सोच से पूरी तरह समझ आ गया कि अरबों की संस्कृति ने भारत के आम जनमानस में ही नहीं बल्कि मठों और मंदिरों तक में बुरी तरह से पैठ बना ली है और इनका पूरी तरह से इस्लामीकरण हो चुका है 

आईये इसके पीछे का पूरा मनोविज्ञान समझें.. 

इस्लाम के मानने वालों की ये एक ख़ास बात होती है कि उनके भीतर ये भावना इतनी ज़बरदस्त होती है कि सिर्फ़ और सिर्फ़ उनका धर्म और अरबी संस्कृति ही सच्ची और मानने योग्य है और दुनिया का कोई भी धर्म और संस्कृति उनके आगे कहीं नहीं ठहरता है.. ये भावना हर मुसलमान में बहुत ही ज़्यादा गहरी होती है.. इस्लाम के सिधान्तों का ये मूल है कि स्वयं के धर्म को, धर्म के प्रतीकों को, और धार्मिक रीति रिवाज को दूसरों से सर्वश्रेष्ठ समझना.. कोई विरला ही मुसलमान आपको कहीं दिखेगा जो ये कहे कि उनके धर्म में कोई भी कुरीति है.. जबकि अन्य  धर्मों के लोग अपने धर्म की कुरीतियों को स्वीकार करते हैं और उस पर खुल कर चर्चा करते हैं.. अब जबकि मुसलमान शायद ही कभी अपने धर्म के किसी धार्मिक कुरीति की चर्चा करे या उसके बारे में लिखे, इसलिए आम हिन्दू या अन्य धर्मों के लोग कभी भी इस्लाम की कुरीतियों को मुसलमानों के मुहं से सुन नहीं पाता और इस से उसके अवचेतन में ये धीरे धीरे बैठ जाता है कि इस्लाम में कोई बुराई नहीं है, और जबकि वो अपने धर्म की आलोचनाओं को अपने ही लोगों द्वारा गाहे बगाहे सुनता रहता है इसलिए धीरे धीरे उसे अपना धर्म हीन और बेकार और कुरीतियों से भरा हुवा लगने लगता है.. ये मनोविज्ञान बहुत धीरे धीरे काम करता है जिसे आप जान ही नहीं पाते हैं कभी

इस्लाम के मानने वाले अपने धर्म की रीतिरिवाजों और मान्यताओं के अलावा हर दूसरे धर्म के रीति रिवाज और रहन सहन को न ही ग़लत समझते हैं बल्कि उसको घृणा की नज़र से देखते हैं.. जैसे झटका गोश्त को, शराब को, औरतों के कम कपडे में घूमने को और उस हर चीज़ को जो उनके अरब की संस्कृति में वेर्जित है उसे वो इस तरह की घृणा की दृष्टि से देखेंगे और उनका पूरा का पूरा समाज उन चीजों के बारे में इतनी बुरी तरह से बात करेगा कि उनके आसपास रहने वाले दूसरे  धर्म के उदारवादी लोग धीरे धीरे हीन भावना से पीड़ित हो जाते हैं 

आप इस बात का चाहें तो प्रैक्टिकल कर के देख लें कि आप दो चार कट्टर धार्मिक मुसलमानों के बीच जा कर रहिये.. और शराब का सेवन कीजिये रोज़.. धीरे धीरे एक दिन ऐसा आएगा कि आप छुप छुप कर शराब पीने लगेंगे और फिर एक दिन उसे छोड़ देंगे.. ये इसलिए नहीं होगा क्यूंकि आपको शराब के फ़ायदे या नुकसान  पता हो गए हैं.. ये इसलिए होगा क्यूंकि आपको आपके साथ में रहने वाले इस तरह की घृणा भरी दृष्टि से दिन रात देखेंगे कि आप एक दिन तंग आ कर उनके सामने समर्पण कर देंगे.. कितने हिन्दुवों को मैंने देखा कि वो जब किसी शराबी के पास होंगे और अगर उनको उस शराबी की सांस सुंघाई दे जाए तो मुहं बना कर कहेंगे कि इसके मुहं से शराब की “बदबू” आ रही है... वो वैसे ही मुहं बनायेंगे जैसे मुसलमान बनाता है.. हकीकत ये है कि दरअसल शराब में कोई “बदबू” नहीं होती है और हिन्दुवों के लिए उनके धर्म में वो हराम नहीं है.. मगर आस पास के मुसलमान, जो शराब को हराम समझते हैं दशकों से अल्कोहल की सुगंध को घृणा से बदबू बदबू कहते आ रहे हैं और इसे सुन सुन कर हिन्दू को भी वो “बदबू” लगने लगी.. ये होता है घृणा का असर आप पर.. बहुत धीरे से मगर बहुत गहराई तक काम कर जाता है 

यही हाल हुवा भारत में कपड़ों और नग्नता को लेकर.. जब आसपास रहने वाले मुसलामानों की संख्या बढ़ी तो खुलेपन और नग्नता में उन्हें हराम और बुराई नज़र आने लगी.. और ये इस्लामिक समाज जब भारत में बढ़ता ही गया तो आसपास वालों पर उस समाज की “घृणा दृष्टि” ने ऐसा मानसिक दबाव डालना शुरू किया कि धीरे धीरे अन्य धर्म वाले अपनी ही चीजों को ग़लत समझने लगे और उन सब बातों को स्वीकार करने लगे जो उनके आसपास रहने वाले मुसलमान अच्छा समझते थे.. ये एक तरह का मानसिक दबाव होता है और इस तरह के दबाव से ही धीरे धीरे अरबों द्वारा लायी गयी हर संस्कृति को लोग स्वीकार करने लगते हैं.. आपको क्या लगता है पाकिस्तान में ज़्यादातर हिन्दू मुसलमान कैसे बन गए? आप सोचते हैं कि वो इस्लाम से प्रभावित हो कर मुसलमान बन गए? नहीं.. इसके पीछे यही घृणा की मानसिकता काम करती है जिसका इस्तेमाल अरब की संस्कृति मानने वाले लोग बखूबी करना जानते हैं.. सोचिये.. थोड़े से कुछ लोग जो किसी मंदिर में पूजा कर रहे हों और उनके आस पास गुजरने वाले लोग मुहं बनायें, उसे हराम बोलें, उसे ग़लत कहें तो वो “थोड़े से” लोग जो रोज़ मंदिर जा रहे थे, धीरे धीरे टूट जाते हैं, और फिर उनके भीतर हीन भावना भर जाती है अपने धर्म और पूजा पद्दति को ले कर.. ऐसे ही वहां पाकिस्तान में ज़्यादातर हिन्दू मुसलमान हो गए.. ये सोचकर कि कौन इतना घृणित जीवन जिए.. इन्हीं की तरह बन जाओ कम से कम इस घृणा से तो मुक्ति मिलेगी 

मेरी इस बात को आप एक और छोटे से उदाहरण से समझिये.. अगर कोई मुसलमान जो मुसलमानों के हिसाब से धार्मिक नहीं है, और रोजा नमाज़ नहीं करता है, उसका मुस्लिम मोहल्लों में रहना लगभग नामुमकिन हो जाता है.. क्यूंकि उस मोहल्ले का हर मुसलमान उसे ऐसी घृणा की दृष्टि से देखेगा कि अंत में या तो वो मोहल्ला छोड़ देगा या फिर वही सब करने लगेगा जो अन्य मुसलमान कर रहे होते हैं.. मैं कई मुस्लिम नास्तिकों के संपर्क में हूँ.. यानि वो नास्तिक जो पहले मुसलमान थे..  और उनमे से हर नास्तिक जो मुसलमान मुहल्लों में रहता है वो पूरी तरह से रोज़ा रहने का ढोंग करता है रमज़ान में और उसी तरह से उसे मस्जिद जाना पड़ता है और नमाज़ पढनी पड़ती है.. क्यूंकि जिस तरह की घृणा उसके आसपास वाले उसे बदले में देंगे उस से बेहतर उसके लिए ये होता है कि वो उन जैसा ही होने का दिखावा कर ले 

आप यक़ीन मानिए इस बात का, और मैं इस बात को दावे से कहता हूँ कि नब्बे प्रतिशत से भी अधिक मुसलमान सिर्फ़ इसलिए रोज़ा, नमाज़ करता है क्यूंकि उसे अपने लोगों को दिखाना होता है.. उसका अवचेतन भली भाँती जनता है कि कहीं कोई अल्लाह नहीं देख रहा है.. क्यूंकि वही मुसलमान हज़ार बुराई करेगा, छिप के शराब पिएगा, सेक्स करेगा.. सोचिये अगर उसे ऐसा लगता कि कहीं कोई अल्लाह देख रहा है तो वो ऐसा नहीं करता.. तो इस बात के लिए वो बिलकुल अंदर से इत्मीनान में रहता है कि कहीं कोई अल्लाह नहीं देख रहा है.. अगर आप ये भीतर से मानते हों सच में कि अल्लाह देख रहा है तो आप ऐसा कुछ नहीं करेंगे कभी जो आपके अल्लाह ने मना किया हो.. सोच के देखिये कि अगर पुलिस सामने खड़ी है तो क्या आप रोड पर रेड लाइट जम्प कर जायेंगे उस पुलिस वाले के सामने? कभी नहीं.. ऐसे ही आपको गहरे में पता होता है कि कहीं कोई अल्लाह नहीं देख रहा है.. और ज़्यादातर नमाज़ और रोजा मुसलमान सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने समाज को दिखाने के लिए करता है.. और उसे वो इसलिए अपने समाज को दिखाना होता है क्यूंकि अगर उसने ऐसा न किया तो उसके घर वाले समेत सारा समाज उसे “घृणा” की नज़रों तले दबा देगा.. उसी “घृणा” से बचने के लिए ज़्यादातर मुसलमान रोज़ा रखता है  

तो समझिये “घृणा” या “नफ़रत” के इस मानसिक दबाव को जो मुस्लिम समाज आपको देता है.. वो नफ़रत आपके पास इतना ज्यादा होती है कि आप उसे देख तो नहीं पाते मगर भीतर से इतने अधिक विचलित हो जाते हैं कि एक दिन आप अपने भीतर की तरंगों के अंतर्द्वंद से तंग आकर हथियार डाल देते हैं और उन्हीं बातों को मानने लगते हैं जो आपके आसपास वाला मान रहा होता है.. खासकर तब जब वो मानने वाला ताक़तवर हो और उसका धौंस हो तब तो आप बहुत जल्दी टूट जाते हैं.. मुगल राज्य के दौरान जाने कितने इसी मानसिक दबाव में आ कर क्या से क्या हो गए और उन्होंने अरबी संस्कृति को अपना लिया.. नग्नता इसी मानसिक दबाव से हारी हुई चीज़ है जिसे आपने हीनता समझ लिया और तंबू लपेटे अरबी औरतों को असल में आपने सभ्य और शालीन स्वीकार कर लिया 

ये घृणा का दबाव बहुत गहरा होता है.. और आप इसके मनोवैज्ञानिक पहलू को समझ नहीं पाते हैं.. ये बहुत धीरे धीरे हुवे.. और ये दबाव ऐसा बना कि पंडितों ने नए ग्रन्थ रच डाले और अपनी औरतों को इस्लामिक तरीक़े से सभ्य और सुशील दिखाने के लिए वही सब करवाना शुरू कर दिया जो मुस्लिम करते थे

मेरे एक हिन्दू दोस्त की बहन को उसकी माँ जीन्स पैंट नहीं पहनने देती है.. मैंने जब ये सुना तो मैं हैरान था कि आखिर जीन्स में उन्हें क्या बुराई दिखती है.. और जीन्स तो ज़्यादातर मुसलमान लोग अपनी बच्चियों को नहीं पहनने देते हैं क्यूंकि उसके हिसाब से वो एक्सपोज़ होता है.. मगर हिन्दुवों के हिसाब कब से जीन्स में बदन एक्सपोज़ होने लगा? उसी बेटी से माँ लिंग और योनि की पूजा करने को बोलती है और बेटी की टाइट जीन्स में उसे अपनी बेटी नग्न दिखाई देती है.. ये होता है दूसरों के मानसिक दबाव न नतीजा.. आपको पता है साड़ी में आपका बदन कहीं ज्यादा एक्सपोज़ होता है? मगर आपने अपने आसपास रहने वाले किसी भी व्यक्ति से सुन लिया की जीन्स कितनी ख़राब दिखती है और उसमे लड़कियां कितनी बुरी दिखती हैं बस आपके अवचेतन से उसे स्वीकार कर लिया.. और ये “घृणा” से प्रेरित लोग आपको ये कहते हुवे दिखेंगे कि जीन्स और टी शर्ट पहनने से रेप होता है.. सरकारों में ऊँचे ओहदे पर बैठे हिन्दू नेता भी ऐसी ही बात करते हैं.. ये सब सदियों से अपने अवचेतन में अपने आसपास रहने वालों द्वारा कही गयी “नग्नता” की घृणा को समेट रहे हैं.. पद्मावत के एक सीन में रानी पद्मावती के ब्लाउज़ और लहंगे के बीच खुले स्थान को “वीर राजपूतों की रक्षक” टीम ने डायरेक्टर को बोल के ढंकवा दिया तब फ़िल्म रिलीज़ होने दी थी.. उनको ब्लाउज़ में अपनी रानी नंगी दिख रही थी.. अरबों को ऐसा दिखता तो समझ आता था मगर भारतीय धर्म रक्षकों को ऐसा दिख रहा था? ये होता है दूसरों की “घृणा” द्वारा उत्पन्न भय जो आपके भीतर सदियों से घर कर चुका है 

मैं कभी जब किसी लेख में शिव लिंग को नग्नता से जोड़ता हूँ तो “कढ़े” (पढ़े) हुवे हिन्दू बहुत ज़बरदस्त हमला बोलते हैं.. उन्हें लगता है कि मैं शिवलिंग की नग्नता को उन्हीं अर्थों में ले रहा हूँ जिन अर्थों में उसे अन्य मुसलमान या दूसरे धर्म वाले लेते हैं और फिर वो मुझे समझाने आ जाते हैं लम्बी लम्बी दार्शनिक बातें और मुझे बताने लगते हैं कि दरअसल लिंग और योनि किस तरह से और किस प्रतीक के रूप में इस्तेमाल होते हैं.. मुझे अच्छी तरह से लिंग और योनि के पीछे का हिन्दू दर्शन पता है मगर जब आप मुझ से बहस कर के मुझे ये साबित करने की कोशिश करते दिखते हैं कि लिंग दरअसल लिंग नहीं है और योनि दरअसल योनि नहीं है.. तो मुझे आप पर तरस आता है.. और मैं देख पाता हूँ कि आपको अपने ही दर्शन में नग्नता किस तरह से विचलित कर रही है और आप दाए बाएं से उसे ढंकने का प्रयास कर रहे हैं.. ये नग्नता की हीन समझ  आपकी अपनी नहीं है बल्कि आपने उधार ली है दूसरों से.. इसलिए मेरे शिवलिंग को लिंग कहने पर आप मुझ पर गुस्सा न कीजिये और मुझे न समझाईये बल्कि आप अपने भीतर झांकिए कि आपके पूर्वज भी ऐसे ही आपकी तरह हीनता और कुंठा से ग्रस्त थे और ओगों को दायें बाएं से लिंग और योनि के दर्शन से भरे हुवे अर्थ समझाने का प्रयास करते थे? और उन्होंने ऐसा साहसिक क़दम उठा कर लिंग और योनि की पूजा शुरू की? नहीं वो आपसे कहीं ज्यादा बहादुर थे.. आपकी तरह कायर नहीं 

तीन दिन पहले सऊदी के प्रिंस सत्ताम अल सऊद ने कनाडा सरकार को एक ट्वीट करके धन्यवाद दिया.. वो धन्यवाद उन्होंने कनाडा सरकार को इस बात के लिए दिया था क्यूंकि एक फोटो में कनाडा की एक सरकारी बस पर उन्होंने एक बैनर देखा था जिस पर “हिजाब” (बुर्का) की तारीफ़ लिखी थी और लोगों को हिजाब पहनने के लिए प्रेरित किया गया था.. सोचिये कनाडा में हिजाब प्रमोट किया जा रहा है और प्रिंस सत्ताम अल सऊद   ने कनाडा सरकार की तारीफ़ कर के और दबाव बना दिया.. ये दबाव ऐसे ही बनता है.. अपने जीते जी इस जीवन में आप कभी ये नहीं सुनेगे कि फ्रांस या कनाडा की सरकार कभी प्रिंस सत्ताम अल सऊद को इस बात के लिए बधाई दे कि उन्होंने “बिकिनी/मिनी स्कर्ट” को प्रमोट करने का बैनर अपने सऊदी की सरकारी बसों पर लगाया.. क्यूंकि हिजाब की अंधाधुंध तारीफ़ ने धीरे धीरे स्कर्ट और बिकिनी को अश्लील बना दिया है आपकी नज़र में.. आपको भी सुनकर ये अजीब लगेगा कि बिकिनी/मिनी स्कर्ट भी कोई प्रोमोट करने की चीज़ है भला? और सच में अगर आप ऐसा सोच रहे हैं तो मुबारक हो आपको, अरबों की आपके रहन सहन और संस्कृति से “घृणा” वाला दबाव आप पर भली भांति काम कर रहा है 

क्या आप सोच सकते हैं कि भारत में हमारे कभी कामसूत्र को प्रमोट करने के लिए सरकारी बसों पर बैनर लगाये जायेंगे? क्या आप सोच सकते हैं कि ऋषि वात्स्यायन को किसी भी शैक्षिक कोर्स में शामिल किया जायेगा? क्या आप सोच सकते हैं कि नागा साधुवों के नग्न बैनर भारत के किसी माल में लगाए जाएँ? 

नहीं.. ये सब नहीं होगा और न ही आप सोच सकते हैं.. क्यूंकि ये सारी पुरातन भारतीय संस्कृति न सिर्फ़ मुसलमानों को बल्कि हिन्दुवों को भी उतनी ही बुरी लगेगी.. हिन्दुवों का बस चले तो वो खजुराहो के मंदिर भी गिरा दें क्यूंकि उन्हें देख कर भी वो शर्माते हैं.. क्यूंकि इतने दिनों की “घृणा” वाली मानसिकता सहने के बाद नग्नता अब एक अभिशाप जैस लगती है आपको.. और नग्न रहना असभ्य लगता है.. और आम इंसान की छोडिये ये पुरातन भारतीय शिक्षाएं सनातन के रक्षक बने योगी और साधुवों को भी नहीं बर्दाश्त होंगी.. मुबारक हो आपको.. अरबों ने आपको अपनी की संस्कृति से घृणा करना सिखा दिया और आपके अवचेतन ने उनके सामने आत्मसमर्पण कर दिया है  

फ्रांस इतने हमलों और इतने इस्लामिक कट्टरवाद के बावजूद नहीं झुका.. उसने अपने यहाँ बुर्क़ा बंद करवाया न कि “बिकिनी”.. उसने अपनी बिकिनी पहने हुवे औरतों को कभी नंगा नहीं कहा और न ही उनके भीतर उसने हीन भावना भरी.. फ्रांस भली भाँती जानता है कि असल नंगे कौन हैं और असल में उसे घृणा किस चीज़ से और किस मानसिकता के लोगों से करनी है.. और एक आप हैं भारत के सनातनी रक्षक.. जो घृणित मानसिकता वाले अरबी गुलामों के साथ आमिर की बेटी को भला बुरा बोल रहे हैं और वो इंसान जो असल में औरत की खुली जांघ को नग्नता नहीं समझता है उसे आप ये बता रहे हैं कि ये भारत की संस्कृति नहीं है?

मेरे इस लेख पर बहुत सारे लोग कहेंगे कि आपके हिसाब से अब हिन्दुवों को “नग्न” रहना शुरू कर देना चाहिए.. तो उनसे मैं सिर्फ़ यही कहूँगा कि आपका ये कुतर्क उसी तरह का है कि जैसे मुसलमानों से जब कहो कि औरतों का बुर्क़ा पहनना सही नहीं है तो वो कहते हैं कि क्या हमारी औरतें नंगी रहें फिर? जैसे बुर्क़े उतारने के बाद उनके हिसाब से औरतें सीधा नंगी हो जाती हैं.. वैसे ही आपका ये तर्क होगा कि की हिन्दू नंगा रहना शुरू कर दे.. हिन्दू नंगा न रहे मगर औरत की खुली जंगों को नग्नता तो न बोले कम से कम? हिन्दू नंगा न रहे मगर अगर भारत में ही कोई भी व्यक्ति नंगा रहना चाहता है तो वो उसे वैसे ही स्वीकार करे जैसे वो नागा और जैन साधुवों को करता है.. उसे उसमे अश्लीलता तो दिखनी बंद हो कम से कम? ये अरबों की दृष्टि को भारतीय जनमानस अपनी दृष्टि तो ना समझे कम से कम 

मैं अपनी बात ऋषि वात्स्यायन की उस बात से ख़त्म करूँगा जो उन्होंने कामसूत्र के अंत में लिखी है.. वात्स्यायन एक ऋषि थे और पूज्य थे हिन्दू धर्म में.. उनका सारा जीवन धर्म को समर्पित था, कामसूत्र उनके धर्म का हिस्सा था.. कामसूत्र के समापन पर वो अपने बारे में कहते हैं कि 

“बभार्व्य और अन्य पुरातन लेखकों को पढने और समझने के बाद, और उस नियम के बारे में, जो उन लोगों ने दिए थे, बहुत ध्यान से सोचने के बाद, पवित्र लेखकों के नियमों के अनुसार, इस विश्व के कल्याण के लिए, वात्स्यायन द्वारा, एक धार्मिक शिष्य की तरह वाराणसी में रहते हुवे और पूरी तरह से अपने आप को दैवीय विचारों से जोड़े रहने के बाद इस किताब (कामसूत्र) को लिखा.. मेरी इस रचना को आप सिर्फ़ अपनी इक्षाओं की पूर्ती करने वाले एक हथियार की तरह इस्तेमाल मत कीजियेगा.. एक इंसान, जिसे विज्ञान के नियमों की अच्छी समझ है, जिसने अपना धर्म, अर्थ और काम (सेक्स या सेंसुअल अनुभूति) संरक्षित कर रखा है, जो दूसरों के रीतियों का आदर करता है, उसे अपनी इन्द्रियों पर अधिकार प्राप्त हो जाता है.. संक्षिप्त में, एक बुद्धिमान और जानकार व्यक्ति जो धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति करता है, बिना अपनी इक्षाओं का गुलाम बने, वो हर उस कार्य में सफलता पाता है जो वो करता है”

~ताबिश    



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