हिन्दी बोलने में हीनता क्यों महसूस होती है?

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हिन्दी बोलने में हीनता क्यों महसूस होती है?

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भारत में 14 सितम्बर हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। 14 सितम्बर 1949 के दिन संविधान सभा ने हिन्दी को भारत की अधाकारिक भाषा का दर्जा दिया था। यानी इसे राजभाषा बनाया गया। 26 जनवरी 1950 को लागू संविधान में इस पर मुहर लगाई गई । देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी को सरकारी कामकाज की भाषा के रूप में मान्यता दी गई । लेकिन हिन्दी की हालत क्या है सरकारी दफ्तरों से लेकर अन्य जगह वो सब जानते हैं। कारोबार के क्षेत्र में तो अंग्रेज़ी को ही मान्यता दी जाती है। आपको अगर अंग्रेज़ी नहीं आती तो आपको काम भी नहीं मिलेगा।

हिन्दी बोलने वाले ख़ुद हिन्दी को हेय दृष्टि से देखते हैं हम और किसी पर दोष क्या लगायें। बड़े शहरों को देख लिये। जहां हिन्दी उनकी मातृभाषा है वहां हिन्दी से ज़्यादा अंग्रेज़ी को तरजीह दी जाती है। हिन्दी मीडियम जैसी फिल्में बनानी पड़े तो सोच लिये उस भाषा की हालत क्या है। आज जब जापान के प्रधानमंत्री शिज़ो आबे भाषाण दे रहे थे तो जैपनीस ही बोल रहे थे और उनकी भाषा को एक अनुवादक हिन्दी में अनुवाद करके बता रहीं थी। ऐसा ही चीनी और अन्य देशों के प्रधानमंत्री ही करते हैं। क्योंकि उन्हें अपनी भाषा पर पकड़ है और उन्हें उसे बोलने में हीनता महसूस नहीं होती। अटल बिहारी वाजपेयी से सोनिया गांधी जिनको हिन्दी नहीं आती थी वो भी हमेशा हिन्दी में ही भाषाण देती हैं। जब राहुल गांधी भारत से बाहर पढ़ने के लिये गये थे तो उन्हें वो हिन्दी में पत्र लिखा करती थीं।

साहित्य की ही बात करें तो कुछ सालों पहले तक अन्य भाषाओं का साहित्य हिन्दी भाषा में मिलता ही नहीं था। लेकिन अब फिर भी अनुवाद होने लगा है जिसमें कमलेश्वर सबसे बड़ा नाम है जिन्होंने बहुत सी भारतीय भाषाओं की कहानियां हिन्दी में रूपांतरित की और उनको संकलित किया‌ और भी बहुत से लेखक और कवि हैं जो अन्य भाषाओं के साहित्य को हिन्दी में रूपांतरित कर रहे हैं।

नदीम हसनैन जी की लखनऊ पर आधारित एक पुस्तक 'द अदर लखनऊ' जो हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों में छपी है वाणी प्रकाशन द्वारा इसे छापा गया है। हिन्दी वाली किताब की कीमत 795 रू है और अंग्रेज़ी वाली की 395 रु। मैं नदीम सर से मिला मैंने उनसे पूछा कि सर ऐसा क्यों है तो उनका कहना था कि मैंने वाणी वालों से कहा था कि दोनों की कीमत बराबर रखिये और बल्कि हो सके तो हिन्दी वाली की कीमत कम ही रखिये लेकिन वाणी वाले नहीं माने।

आप कभी पुस्तक मेले में जाइये तो आपको अंग्रेज़ी की मोपासा की कहानियों का संकलन अंग्रेज़ी में ही 100 रू का मिल जायेगा और उसमें लगभग 700 कहानियाँ होंगी लेकिन हिन्दी का साहित्य खरीदने पर जेब ढीली हो जाती है। हां हो सकता है हिन्दी साहित्य कम पढ़ा जाता है इसलिये महंगा कर रखा है। लेकिन महंगा करने से तो और नहीं पढ़ा जायेगा।

फेसबुक ने बढ़ाया हिन्दी लिखना और बोलना। आज फेसबुक पर बहुत से लोग हिन्दी लिखते हैं तो देखकर फिर भी थोड़ा सूकून मिलता है। लोग कवितायें,निबन्ध और अपने स्टेट्स हिन्दी में डालते रहते हैं। तो लगता है कि हां हिन्दी अभी बची है। बहुत से हिन्दी न्यूज़ पोर्टल हैं जिनको धड़ल्ले से लोग पढ़ते भी हैं।

हिन्दी पढ़िये,लिखिये बोलिये ये आपकी भाषा है। अन्य भाषायें भी जानिये। उनको भी पढ़िये। लेकिन अपनी भाषा को बोलने में हीनता न महसूस करिये।



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